Skip to main content

श्रीमाताजी जीवन एक संक्षिप्त परिचय

 श्रीमाँ का जन्म पैरिस में 21 फरवरी सन् 1878 को एक संभ्रांत परिवार  में हुआ। उनके पिता मोरिस अल्फासा एक बहुत बड़े बैंकर और माता मातिल्दा एक सुशिक्षित महिला थीं। अल्फासा दम्पति के दो ही संतानें थीं, पुत्र का नाम था मतिओ जो बाद में अल्जीरिया कांगो के गवर्नर हुए। बेटी का नाम था मीरा जो विश्व में श्रीमाँ या माता जी के नाम से एक आध्यात्मिक विभूति के रूप में विख्यात हुई। मीरा जैसा भारतीय नाम इसे निरा संयोग कहें या किसी आत्मा का चुनाव? यह परिवार कुछ वर्ष पूर्व मिस्र से आकर फ्रांस में बसा था।

 


श्रीमाँ (मीरा) जन्मजात योगी थीं। चार वर्ष की आयु से ही इन्हें स्वाभाविक रूप से ध्यान लगता था। ध्यान के समय एक प्रज्वलित ज्योति इनके शिरोमंडल में प्रवेश करती और अद्वितीय शांति का अनुभव कराती। परिवार के लोग इनकी गंभीर मुखाकृति और ध्यानमग्नता को देखकर चिन्ता की स्थिति समझते थे लेकिन श्रीमाँ को धीरे-धीरे इससे स्वानुभूति होने लगी। 12 वर्ष की आयु तक तो बिना किसी दीक्षा के वे घण्टों ध्यान में डूबने लगीं। पेरिस के समीप फाउण्टेन ब्लू नाम के जंगल में वे अकेले ही निकल जातीं और ऊँचे पेड़ों की जड़ में बैठकर जब एकांत में ध्यानस्थ हो जातीं तो प्रकृति के साथ उनका गहरा तादात्म्य हो जाता और गिलहरियां तथा पक्षी इनके शरीर के ऊपर दौड़ते-फुदकते रहते। वे पेड़-पौधों के भीतर प्राचीन भारतीय ऋषियों की भांति बिना किसी प्रशिक्षण के ही अपनी चेतना को प्रविष्ट कर उनके अन्तर को पढऩे में सक्षम थीं। बाद में साधना की उन्नति के साथ वह तादात्म्य पशु, पक्षियों और मनुष्यों के साथ भी होने लगा, दूरस्थ वस्तुओं और अचेतन चीजों के साथ भी।  श्रीमाँ की शिक्षा-दीक्षा थोड़ी देर से आरम्भ हुई और जब हुई तो उसकी दिशाएं चहुमुखी हुईं - सामान्य पाठ्यक्रम के साथ साथ नृत्य, संगीत, चित्रकला, साहित्य आदि में इनकी गहरी रुचि ने शीघ्र ही एक सर्वांगीण व्यक्तित्व की रचना प्रारंभ कर दी। साधना की दुर्लभ स्थितियां, जो उनकी समूची शिक्षा का केन्द्र-बिन्दु थीं, शायद उन्हें अज्ञात सूत्रों संस्कारों से प्राप्त होती रहीं। 13 वर्ष की आयु में उनका सूक्ष्म शरीर भौतिक शरीर से प्रत्येक रात को बाहर निकल जाया करता था और तब उन्हें ऐसी अनुभूति होती कि उनका विशाल सुनहला परिधान सारे पेरिस शहर के ऊपर छाया है जिसके नीचे दुनिया के हजारों दुखी और संतप्त लोग आकर आश्रय ग्रहण कर रहे हैं और उसे छू कर शांति और स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं। यह एक ही अनुभूति उन्हें लगातार : माह तक होती रही। मानवता के संताप और वेदना की चीखों को वे तब अपने अंचल में समेट लेने के लिये अपनी आजानुबाहुओं को मीलों की दूरी तक पसार दिया करतीं।

 

इस आयु में ही स्वप्नावस्था में श्रीमाँ की उच्च कोटि की साधना कितनों ही गुरुओं द्वारा पूरी कराई गई। अनेकों गुरुओं में एक गुरु ऐसे थे जिनका सान्निध्य उन्हें आरंभ से अन्त तक मिला और इसके कारण वे समझ गईं कि वे कहीं कहीं पृथ्वी में हैं और उनके साथ मिलकर उन्हें मानवता के लिये विशेष कार्य करना है। इनकी आराधना वे कृष्ण के रूप में करने लगीं और भविष्य में उनके साक्षात्कार की अभीप्सा लिये दैवी मुहूर्त की प्रतीक्षा करने लगीं। 1904 में एक भारतीय ऋषि से श्रीमाँ की भेंट फ्रान्स में ही हुई। उन्होंने गीता का एक फ्रेन्च अनुवाद माँ को दिया जो बहुत अच्छा अनुवाद तो नहीं था पर एक माह के भीतर श्रीमाँ उसी के माध्यम से भगवान कृष्ण के साथ पूर्ण तादात्म्य स्थापित करने में सफल हो गईं। फिर तो संस्कृत भाषा से उन्हें अगाध प्रेम हो गया और भारतीय संस्कृति के अध्ययन की भूख इतनी तीव्र हो उठी कि केवल उन्होंने उपनिषदों और सूत्रों का अध्ययन कर डाला बल्कि ईषोपनिषद्  नारद भक्तिसूत्र आदि का संस्कृत से फ्रेन्च में अनुवाद भी कर दिया। स्वामी विवेकानन्द के राजयोग की पुस्तक उन्हें हाथ लगी और उसे पढ़ कर जब उनकी अनुभूतियों का उसमें पूर्ण सामंजस्य प्राप्त हो गया तो श्रीमाँ ने सन्तोष की सांस लेते हुए कहा - ‘चलो, दुनिया में एक व्यक्ति तो मिला जिसने मुझे समझा। 1905 में उन्होंने पेरिस में जिज्ञासुओं की एक गोष्ठीबुद्ध विचार का संगठन किया जिसमें योरुप के दूर-दूर के विद्वान, मनीषी और नैतिकता प्रेमी भाग लेने आने लगे। इन गोष्ठियों में माता जी द्वारा व्यक्त किये गये पुराने विचारों को पढक़र बड़ा आश्चर्य होता है क्योंकि इन विचरों में श्रीअरविन्द के दिव्य जीवन में अभिव्यक्त विचारों की ही सुन्दर झांकी मिलती है।

 

पर इन गोष्ठियों और उपलब्धियों से श्रीमाँ के अन्तर में सुलगती ज्ञान की पिपासा शांत हुई। आत्मा की मांग इससे कहीं बड़ी थी। उन दिनों अल्जीरिया में गुह्यविद्या में निपुण तेओ और उनकी पत्नी की बड़ी प्रसिद्धि थी। अपने भाई के साथ, जो अल्जीरिया में उन दिनों गवर्नर थे, श्रीमाँ तेओ दम्पति से गुह्य-विद्या सीखने के लिये क्लेमेन्स पहुँचीं। सहारा की कडक़ती धूप में पेड़ों के नीचे बैठकर वे वर्षों गुह्यविद्या की साधना करती रहीं। वे इस विद्या में इतनी पारंगत हो गईं कि अपने शरीर को क्षणभर में दुनिया के किसी भी स्थान पर प्रगट कर सकती थीं और सूक्ष्म भौतिक जगत् में होने वाली उन घटनाओं का पता लगा सकती थीं जहाँ मनुष्य की कोई भी इन्द्रिय काम नहीं करती। इस विद्या का प्रयोग उन्होंने अपरिहार्य स्थितियों में कुछेक बार के अतिरिक्त कभी नहीं किया। उदाहरण के लिये एक बार जब वे तेओ के साथ पेरिस जा रही थीं तो भू-मध्य सागर में जोरों का तूफान आया। जल-जहाज में बैठे कप्तान सहित सभी यात्री घबड़ाकर चीखने-चिल्लाने लगे। सभी का जीवन खतरे में था। तेओ ने श्रीमाँ से तूफान बन्द करने को कहा। वे चुपचाप कैबिन में गईं और लेटकर अपने सूक्ष्म शरीर को बाहर निकाला। उन्होंने इस शरीर की सहायता से देखा कि छोटी-छोटी,अनन्त संख्या में एकत्रित प्राणिक सत्ताएं जहाज के डेक से पानी में कूद रही हैं और पुन: जहाज में आकर जलक्रीड़ा कर रही हैं। उनके वेग से यह तूफान आया था। माँ ने उनसे बहुत अनुनय-विनय करके इस जान-लेवा क्रीड़ा को बन्द कराया और तूफान शांत हो गया।

 

बाद के वर्षों में जापान प्रवास के समय प्रथम महायुद्ध के तत्काल बाद जापान में एक महामारी फैली। लोगों को एक ही दिन कड़ा बुखार आता और दूसरे दिन वे संसार-सागर से मुक्त हो जाते। सरकार और चिकित्सक सभी हैरान। कोई भी दवाई प्रभावकारी नहीं हो पा रही थी। एक दिन अचानक श्रीमाँ इस इस बीमारी की चपेट में गई। उन्होंने कोई भी दवा लेने से इन्कार किया और इसका उपचार अपने ही ढंग से करना उचित समझा। भयंकर बुखार की स्थिति में उन्होंने अपने सूक्ष्म शरीर को बाहर निकाला। उन्होंने पाया कि एक सिरकटा सेनापति, जो प्रथम महायुद्ध में मारा गया था, उनके गले में लगकर खून चूस रहा है। श्रीमाँ ने पूरी शक्ति के साथ इस प्राणिक सत्ता के साथ संघर्ष कर उसे समाप्त कर दिया। उसी क्षण से जापान इस महामारी से मुक्त हो गया। एक तीसरी घटना बिल्कुल हाल की है जो श्रीमाँ की गुह्य शक्ति पर प्रकाश डालती है। फरवरी 1960 में मध्यप्रदेश के रीवा जिले में स्थित श्रीअरविन्दाश्रम बन चुका है, लगातार 9 दिनों तक सैकड़ों बार मकानों में आग लगने से त्राहि-त्राहि मची हुई थी। गाँव वालों ने तार द्वारा श्रीमाँ से रक्षा की याचना की। हजारों व्यक्ति, पुलिस और जिलाधिकारी हैरान थे। श्रीमाँ ने पत्र द्वारा सन्देश भेजा - एक आसुरी शक्ति उस स्थान पर आक्रमण कर रही है और अमुक व्यक्ति उस शक्ति का माध्यम है। उसे तुरन्त घटनास्थल से निकाल कर कहीं दूर अकेले में रक्खा जाये। ऐसा ही किया गया और उसी क्षण अग्निकांड समाप्त हो गया। यह विचित्र घटना ही यहाँ भी श्रीअरविन्दाश्रम माँ मन्दिर के निर्माण का अदभुत कारण बनी।

 

लेकिन गुह्यविद्या और उसके चमत्कार, चाहे वे कितने भी संकटमोचक रहे हों, तो श्रीमाँ के व्यक्तित्व के परिचायक रहे ही उनकी आध्यात्मिक शक्ति के स्रोत। इन शक्तियों और सिद्धियों से अपने को बहुत दूर रखकर वे उस परम शक्ति और परमानन्द की प्रयोगशाला में काम करती रही जिनके अवतरण से ही सृष्टि में दिव्य जीवन संभव बन सकता है। गुह्यविद्या की साधना से अन्तर में जलती भगवत्ता की ज्योति तनिक भी शांत नहीं हुई और वे तेओ दम्पति से विदा लेकर अपने उस महान् गुरु की खोज में निकल पड़ीं जो उनके हृदय में आरंभ से अभीप्सा के केन्द्र-बिन्दु थे। 1913 में उनके पति श्री पाल रिशार, जो स्वयं भी आत्मा के जिज्ञासु और एक अच्छे दार्शनिक थे, फ्रांस की संसद् के एक प्रत्याशी के रूप में चुनाव सम्पर्क हेतु अपने निर्वाचन क्षेत्र पाण्डिचेरी आये। यहीं उन्होंने श्रीअरविन्द के दर्शन किये और उनके तनिक सम्पर्क से ही उन्हें ज्ञात हो गया कि वही श्रीमाँ के असली गुरु हैं।

 

मार्च 1914 को कामागारू जहाज पर श्रीमाँ फ्रान्स से अपने कृष्ण श्रीअरविन्द से मिलने के लिये रवाना हुईं। 29 मार्च सन् 1914 को सांयकाल उन्होंने चिरप्रतीक्षित गुरु-देव श्रीअरविन्द के दर्शन किये। पहली ही दृष्टि में उन्होंने अपने कृष्ण को पहचान लिया और उनके चरणों में आत्मसमर्पण कर दिया। उन्होंने अपने अन्तर्चक्षुओं से श्रीअरविन्द के व्यक्तित्व की उस ऊंचाई को निहार लिया जो इस बात की प्रतीति कराती थी कि मानव जाति की दिव्यता का समय गया है। अपनी दैनन्दिनी में श्रीमाँ ने लिखा, ‘कोई चिन्ता की बात नहीं यदि हजारों लोग घने अज्ञान में फंसे हैं, कल हमने जिन्हें देखा वे धरती पर विद्यमान हैं जो यह सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है कि एक दिन आयेगा जब अंधकार ज्योति में बदल जायगा और धरती पर हे प्रभु! तेरा राज्य स्थापित होगा। अपने समर्पण में श्रीमाँ ने जो लिखा उसे ‘राधा प्रार्थना के नाम से जाना जाता है। इस प्रार्थना का एक-एक शब्द आज भी एक अभीप्सु की हृदय-तंत्री को झनझना देता है -

 

‘‘हे प्रभु! मेरे सब विचार तेरे हैं, मेरी समस्त भावनाएं, मेरे हृदय के सारे संवेदन तेरे हैं, मेरे जीवन के सारे संचरण, मेरे शरीर का एक-एक कोष, मेरे रक्त की एक-एक बून्द तेरी है। मैं सब प्रकार से और समग्र रूप से तेरी हूँ। मेरे लिये तू जीवन चुने या मरण, हर्ष दे या शोक, सुख दे या दुख, तेरी ओर से मुझे जो भी मिलेगा, अंचल में बांध लूँगी।’’

 

व्यक्त जगत् में इन दो आत्माओं का मिलन आध्यात्मिक जगत् के विकास-क्रम में एक बहुत बड़ी घटना थी। माता जी की मूक अर्चना को श्रीअरविन्द ने ही समझा, उनकी आध्यात्मिक ऊंचाईयों को उन्होंने ही जाना। इस मिलन के मूक संवाद के बाद एक निश्चल नीरवता ने श्रीमाँ की चेतना को अधिकृत कर लिया। इस नीरवता में ही उन्होंने अब तक की लिखी सारी उपलब्धियों की स्लेट को साफ कर डाला और श्रीअरविन्द के चरणों में बैठकर अपने नये जीवन का प्रारंभ किया। श्रीअरविन्द ने बहुत बाद में अपने शिष्यों को बताया कि श्रीमाँ के समर्पण के पूर्व उन्हें स्वयं समर्पण की इतनी ऊंची और सर्वांगीण भूमि का पता नहीं था। श्रीमाँ द्वारा अपनी दैनन्दिनी में लिखी अनुभूतियों को देखने से ऐसा विदित होता है कि पाण्डिचेरी आने से बहुत पहले ही उन्हें भगवान के साथ पूर्ण तादात्म्य सुलभ था पर इन सब का गुरु के चरणों में अर्पण और नये सिरे से सब कुछ सीखने की उत्कट अभीप्सा गुरु-शिष्य की भारतीय परम्परा का उन्नयन है।

 

15 अगस्त 1914 से श्रीमाँ और उनके पति श्री पाल रिशार के सहयोग और जिज्ञासा से अरविन्दाश्रम से ‘आर्य नाम की पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इस पत्रिका के माध्यम से ही जगत् को श्रीअरविन्द के आध्यात्मिक, दार्शनिक और भारतीय संस्कृति के ज्वलंत स्तम्भों का दिग्दर्शन हुआ जब गीता पर श्रीअरविन्द के विचार मुदुक्षु हृदयों को धन्य कर रहे थे तभी प्रथम महायुद्ध प्रारम्भ हो गया और श्रीमाँ को ब्रिटिश सरकार के दबाव के कारण क्रांतिकारी श्रीअरविन्द का साथ छोडक़र फ्रांस वापस जाना पड़ा। वे वहां से 1916 में जापान गईं और सूर्य के इस देश में उन्होंने बौद्ध और शिन्तों धर्म की भूमि को पग-पग में जोहा। यहीं उन्हें शाश्वत कृष्णचेतना की अनुभूति बुद्ध भगवान के दर्शन हुए। शाक्त मुनि बुद्ध ने उन्हें सन्देश दिया, ‘मैं तुम्हारे हृदय में स्वर्णिम ज्योति का जगमगाता हीरा देखता हूँ जो शुद्ध और उष्ण दोनों साथ-साथ है जिससे यह अव्यक्त प्यार को व्यक्त कर सके। ...... पृथ्वी और मानव की ओर मुड़ो - यह आदेश क्या तू सर्वदा अपने हृदय में नहीं सुनती ? मैं स्पष्ट रूप से तेरी आंखों के सामने प्रकट हुआ हूँ जिससे तू तनिक भी संदेह करे। जापान में ही श्रीमाँ की भेंट ठाकुर रवीन्द्रनाथ टैगोर से हुई जिन्होंने श्रीमाँ को शान्तिनिकेतन का दायित्व सम्भालने का प्रस्ताव किया लेकिन श्रीमाँ ने विनम्रता से प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। जापान में श्रीमाँ ने विभिन्न विषयों पर अपने प्रवचनों और विचारों द्वारा, विशेषकर नारी जगत् के लिये एक अमूल्य छाप छोड़ी। सी.एफ. एण्ड्रूज पिअर्सन और बहुत से कलाकार उनसे अत्यधिक प्रभावित हुए।

 

महायुद्ध के समाप्त होते ही 24 अप्रैल 1920 को श्रीमाँ हमेशा के लिये पाण्डिचेरी गईं। पूरे : वर्ष तक श्रीअरविन्द से बिलगाव को उन्होंने सूक्ष्म जगत् में आसुरी शक्तियों के एक नियोजित षडय़ंत्र का परिणाम कहा जो दोनों को साथ मिलकर काम करने से रोक रही थीं। श्रीमाँ के जीवन में इस अलगाव की प्रत्येक घड़ी भयंकर अनुभवों की एक ऐसी कहानी रही है जिस पर से उन्होंने जीवन के अन्त तक परदा नहीं उठाया।

 

1920 से लेकर 1926 तक का काल श्रीमाँ का कठिन साधना का काल रहा है। अपनी सारी शक्तियों का आत्मगोपन किये भारतीय वेशभूषा में चुपचाप श्रीअरविन्द के चरणों के पास वे ध्यानमग्न रहा करती थीं। उनके सहज शिष्यत्व-भाव के भीतर छिपी अदभुत मातृशक्ति का : वर्षों तक किसी को पता नहीं चल पाया पर श्रीअरविन्द उन्हें वर्षों पहले से जानते थे। अपने राजनीतिक जीवन में वन्दे मातरम् में जिस ‘Hail Mother’शीर्षक से उन्होंने अदभुत लेख लिखा था उसमें उनका मन्तव्य इन्हीं माँ से था और श्रीमाँ के पाण्डिचेरी आने के पूर्व भी वे अपने अन्तरंग शिष्यों को किसी आने वाली ‘माँ के विषय में रहस्यमय संकेत दिया करते थे। इस सारे रहस्य का परदा तब खुला जब 24 नवम्बर 1926 को श्रीअरविन्द कृष्णचेतना को अपने भौतिक शरीर में उतार लाने में सफल हो गये। इसी दिन श्रीअरविन्दाश्रम की रचना प्रारंभ हुई जब श्रीअरविन्द ने ‘माँ का परिचय ‘श्रीमाँ के रूप में जगत् को स्वयं कराया और साधकों की सारी भवितव्यता को उनके सबल हाथों में सौंपकर सूर्यचेतना (अतिमानस) को भौतिक जगत् में उतार लाने हेतु कठिन साधना के लिये गुप्त वास में चले गये। वरिष्ठ से वरिष्ठ साधकों का तब वे मार्गदर्शन करने लगीं। आश्रम का चहुमुखी विकास प्रारंभ हुआ। कई साधकों ने उनकी शक्ति की परीक्षा भी ली और जितनी ही अधिक परीक्षा ली गई उतनी ही वे श्रद्धा भक्ति की पात्र सिद्ध होती गईं। एक स्थिति ऐसी आई जब पुराने-नये सभी साधक साधना का सारा भार श्रीमाँ के सबल कंधों पर रख कर निश्चिन्त हो गये।

 

1938 में श्रीअरविन्द की अतिमानसिक साधना में आसुरी शक्तियों ने पूरी शक्ति लगाकर विघ्न पैदा किया। वे सीढिय़ों से गिरे और जांघ की हड्डी चकनाचूर हो गई। वाह्य जगत् में द्वितीय महायुद्ध की रणभेरी बज उठी। हिटलरी महाशक्तियों ने मानव के चेतनात्मक विकास को निगल जाने के लिये इतिहास की सबसे बड़ी चुनौती बनकर अपनी सेनाएं जंग में उतार दीं। श्रीअरविन्द ने इसे श्रीमाँ के विरुद्ध लड़ा जाने वाला युद्ध घोषित किया। श्रीमाँ ने स्पष्ट शब्दों में दुनिया को बताया कि भारत की स्वतंत्रता के साथ दुनिया के विकास का भवितव्य जुड़ा है और भारत की आजादी मित्र राष्ट्रों की विजय के साथ जुड़ी है इसलिए हर कीमत पर उनकी सहायता की जानी चाहिए। भारत के राजनीतिक दल जब अपने ऊहापोहो में अनिश्चय की घड़ी से गुजर रहे थे, श्रीअरविन्द और श्रीमाँ ने भौतिक और आध्यात्मिक दोनों शक्तियों से मित्रराष्ट्रों की सहायता की और भारत की आजादी को विजय-द्वार तक पहुँचा दिया। मानव-विकास को निगलने वाली अंधी शक्तियाँ पराजित हुईं भारत स्वतंत्र हुआ और उसके साथ ही तीन दशकों के भीतर सारा विश्व स्वतंत्र हो गया। इतिहासकार इसे निरे संयोग की बात कहना चाहें, तो कह लें, राजनीतिज्ञ सारा श्रेय लेना चाहें तो ले लें लेकिन सृष्टि के इतिहास में मानव विकास में इतनी बड़ी करवट इसके पहले कभी नहीं ली।

 


भारत की आजादी विश्व में मानव चेतना के उत्थान का प्रथम मुहूर्त है। इस दृढ़निश्चय के साथ श्रीमाँ ने अपने को भारतमाता के साथ एकाकार किया और सन् 1950 में श्रीअरविन्द के पार्थिव शरीर के छोड़ देने के बाद भी संसार में दिव्य जीवन की संभावनाओं को जुटाते रहने में अपनी साधना के सोपानों को चुपचाप अपनी प्रयोगशाला में जोड़ती रहीं। दुनिया के कोलाहल, प्रसिद्धि, प्रचार और राजनीति से सर्वथा दूर रहकर उन्हें जो करना था करती गईं। सूक्ष्म भौतिक शरीर में उनका सम्बन्ध अन्त तक श्रीअरविन्द से बना रहा और उनका निर्देशन उन्हें मिलता रहा। 29 फरवरी 1956 को श्रीमाँ की घोषणा के अनुसार अतिमानस की दिव्य चेतना पृथ्वी पर उतर गई। इस चेतना में दिव्य जीवन की अनन्त संभावनाएं विद्यमान हैं। धीरे-धीरे इस चेतना का ज्यों-ज्यों विस्तार होता चलेगा और उसके विविध पक्षों का एक-एक करके उदघाटन होता जायेगा, त्यों-त्यों मानवता का पहले बहुत छोटा भाग और धीरे-धीरे बड़ा भाग इस भागवत वरदान के प्रति सचेतन होता जायेगा। जगत् के दिव्यीकरण का बीज बोया जा चुका है।

 

17 नवम्बर 1973 को श्रीमाँ के पार्थिव शरीर ने महासमाधि ली। उनके जाने के बाद उनके कार्यों का लेखा-जोखा करने में दुनिया के लोग हर क्षेत्र में व्यस्त हैं। ‘अतिमानस अब कोई संभावना नहीं, एक वास्तविकता बन चुकी है। श्रीमाँ के इस वेदवाक्य का परीक्षण हो रहा है। 1972 श्रीअरविन्द की जन्म शताब्दी वर्ष से लेकर 1978 में श्रीमाँ की जन्म शताब्दी वर्ष के बीच विश्व की समस्याओं में तीव्र गति से पविर्तन होकर मानव एकत्व की दिशा में जो राजनीतिक, आर्थिक और चेतनात्मक संगठन की संभावनाएं बन रही हैं उनके बीच एक व्यापक दृष्टि किसी दैवी सामंजस्य का संकेत तो देती है लेकिन ऋषियों की प्रयोगशाला में मानव विद्या की कोई भी सर्जना ‘टेस्ट टयूब बेबी की तरह प्रकट नहीं होती। श्रीमाँ और श्रीअरविन्द की प्रयोगशाला दिव्य मानव के गढऩे की प्रयोगशाला रही है, कीर्तनों, भजनों, उपदेशों, मोक्षों और भवसागर पार ढ़ोने की यात्राओं का आयोजन नहीं - इसके परिणामों के आने में देर तो लगेगी ही। ( जनकल्याण ट्रस्ट, मां मंदिर महसूवा वेबसाइट वाल से साभार )



Comments

Popular Posts

Significance of New Year

  1st January,  the first day of the year on the modern Gregorian  Calendar as well as the Julian Calendar is observed as New Year's  Day.  In pre-Christian Rome under the Julian Calendar,  the day was dedicated to Janus,  God of Gateways and Beginnings,  for whom January is also named.  It symbolizes New Year's  Day which provides us the opportunity to celebrate having made it through another 365 days, the unit of time by which we keep chronological score of our lives. New Year is first celebrated on the small Pacific Island nations of Tonga, Samoa,  and Kiribati.  New Zealand follows next in celebrating the New Year, followed by Australia,  Japan, and South Korea, while the last place to celebrate New Year is Bakers Island which lies in the Central Pacific Ocean. One of the most popular ways to celebrate New Year is with big fireworks displays; partying;  family gatherings;  feasting;  gift exchanging....

The Mother on Politics

A DECLARATION Sri Aurobindo withdrew from politics; and, in his Ashram, a most important rule is that one must abstain from all politics―not because Sri Aurobindo did not concern himself with the happenings of the world, but because politics, as it is practiced, is a low and ugly thing, wholly dominated by falsehood, deceit, injustice, misuse of power and violence; because to succeed in politics one has to cultivate in oneself hypocrisy, duplicity, and unscrupulous ambition. The indispensable basis of our Yoga is sincerity, honesty, unselfishness, disinterested consecration to the work to be done, the nobility of character, and straightforwardness. They who do not practice these elementary virtues are not Sri Aurobindo's disciples and have no place in the Ashram. That is why I refuse to answer imbecile and groundless accusations against the Ashram emanating from perverse and evil-intentioned minds. Sri Aurobindo always loved deeply his Motherland. But he wished her to be grea...

The Mother's Quote for Christmas

                                                                           1962 May the New Light illumine your thoughts and your lives, govern your hearts and guide your action. Blessings.   1963 Joyeux Noel. Let us celebrate the Light by letting it enter into us.   1964 If you want peace upon earth, first establish peace in your heart. If you want union in the world, first unify the different parts of your being. Blessings.   1965 Bon Noel to all.   1966 Bon Noel to all, in Peace and Joy. May this new Christmas be for you the advent of a new light, higher and purer.   1967 Union and goodwill upon earth. Behind the rigidity of the outward celebrations there is a living symbol; it is this that ...

New Year Messages by The Mother

                                                                                                                New Year Messages by The Mother                                                   1933 Let the birth of the new year be the new birth of our consciousness.   Leaving the past far behind us, let us run towards a luminous future.       1934   Lord, the year is dying and our gratitude bows down to Thee.   Lord, the year is reborn, our prayer rises up to...